हर पुरुष या स्त्री सोचते हैं और महसूस भी करते हैं कि जो सबसे बेहतरीन है, उन्हें उपलब्ध होना चाहिए। इसलिए हर पुरुष या स्त्री, उनके खुद के तरीके में, किसी दैविक शक्ति के प्रति यह प्रदान करने के लिए भीख माँगते, अनुरोध करते, प्रार्थना या निवेदन करते, जिसकी कमी उन्हें है या उनके परिवार को है। मनुष्य विश्वस्त है कि उसे कुछ चीज़ का भी अभाव नहीं होनी चाहिए। यदि वह कुछ भी चीज़ का अभाव नहीं चाहता, वह क्यों अपने साथ नहीं ले आता जब वह इस संसार में आता है? चूँकि मनुष्य मानता है कि वह जो चाहता है उसका अधिपति हो सकता है, और जब उसकी इच्छा पूरी नहीं होती, वह मानसिक और भौतिक दोनों स्वामित्व का अभाव महसूस करता है। ‘अभाव में होना’ के अध्याय में उपस्थित शक्ति, वर्तमान का बोध ले आता है- यानि विचारहीन और समयहीन ‘अब’का जिसमें कुछ पाने या किसी चीज़ का अधिपति होने की इच्छा की कोई छाया नहीं। यह समझ कि मन केवल अभाव का अनुभव ही कर सकता है, एक अद्भुत वरदान है, यद्यपि अभाव में रहने के लिए कोई उपस्थित नहीं। कितनी भ्रामिक है?
मनुष्य अपना जीवन एक कुत्ता अपनी पूँछ पीछा करने के समान जीता है- वृत्त का चक्क्र लगाने के समान- यह न जानते हुए कि जिसका पीछा करता है, वह उसे कभी प्राप्त नहीं हो सकता! एक बेतुका तरीके से जीना या शायद जीना ही नहीं; इसी तरह पौराणिक पात्र टान्टालस जिसे निरन्तर रूप से पानी या अंगूर देते हुए, भगवान से दण्ड दिया गया- और जब भी उसे प्यास या भूख मिटाने के लिए उनकी तऱफ़ हाथ बढ़ाया तो वे पहुँच के बाहर निकल जाते थे! वही आदमी सुखी है जो ‘अभाव में होना’ के अध्याय का ज्ञान समझते हुए, जीवन से जुड जाता है जैसे-जैसे जीवन रहस्यपूर्वक विधि से कोई अभाव बिना अपना परख खोल देता है।
‘चुनो, पर सही तरीके से चुनो’- मन के लिए बुद्धिमान शब्द है जैसे ‘चलांग मारने के पहले देखो’ है। मनुष्य चुनता है क्यों कि वह बहुत चीज़ों का अभाव महसूस करता है। इसलिए चुनने के लिए वह कई सही चुनाव से भरा हुआ है और यद्यपि वह तर्क, धर्म और आद्यात्मिका से निर्देश और सहारा लेते हुए अति सावधानी से चुनता है, उसके अनुभव यह बताते हैं कि वह ‘चलांग मारने के पहले देखा’ नहीं। मन एक विशाल मात्रा है जिसमें कई चुनाव समाविष्ट है और वह मनुष्य के लिए कई चुनाव प्रदान करता है, जो उसके लिए दिव्य वार्ता है और जो ‘चलांग मारने के पहले उसे देखने’ को मदद करता है। केवल एक अध्याय ‘चुनना’ से जो समझ उद्भुत होता है जो मन का भ्रामिकपन और अहं की शक्ति को भ्रामिक होते हुए भी वह मनुष्य का एक वृहत अंग को प्रभावित करने में प्रदर्शित करता है- सचमुच भगवान का वरदान है। चुनाव की माया इतनी सुंदर है- पर उससे और सुंदर वह ज्ञान है जो माया को प्रकट करता है और खुद एक चुनाव न रहते हुए अंत में कोई चुनाव बिना रहने का चुनाव प्रदान करता है !
मनुष्य जो चुनता है, उसके परिणाम के कारण आकांक्षित करता है। जो जीवन हम मन की आकांक्षाएँ, आशाएँ, भय,और नकरात्मक और सकरात्मक भविष्यवाणी द्वारा बिताते हैं और अगणित भिन्नता की माया का आह्वान करते हुए उसपर जो प्रकाश बिखराया गया है वह एक इश्वरीय वरदान है, जो ‘आकांक्षाएँ’नामक अध्याय के ज्ञान द्वारा दी गयी एक भेंट है। इस अध्याय के पढ़ने और चिंतन करने के दौरान, क्रोध, बरबादी और घृणा इत्यादि का अनुभव करनेवाला एक धमकाया गया जानवर के समान, मन प्रकट होगा। एक बढ़ता हुआ बोध होगा कि यह भ्रामिक और क्रोधित जानवर भी खुद जीवन की अभिव्यक्ति है, खुद भगवान का एक रूप, किसी ‘और’ तरीके में नहीं। फिर भी यह बढ़ता हुआ बोध किसी का नहीं-अत्यंत कृतज्ञता सहित वह सिर्फ़ वहाँ है । यह बात कि भगवान माया और यथार्थ दोनों हैं इस अध्याय को समझने पर बहुत अगाध रूप से सुस्पष्ट है।
चुनाव के साथ आकांक्षाएँ आते हैं : यह तो अनिवार्य है। अभिप्राय बिना मनुष्य के जीवन में कोई संबद्धता नहीं, क्यों कि अभिप्राय एक दिशा सूचक (कॉम्पस) के समान मनुष्य को अपने जीवन में चुनने का एक दिशा-बोध देते हुए कार्य करता है। अभिप्राय मनुष्य को यह आश्वासन देता है कि वह खोया नहीं है, पर एक ज्ञानी समझता है कि अभिप्राय उसे कोई महत्व स्थान या यथार्थता की तऱफ़ निर्देश नहीं करता। अभिप्राय के कारण, मनुष्य खोया हुआ है और ये समझ अपने सच्चा मंज़िल की तऱफ़ निर्देश करता है। मन, को अभिप्रायों से ऐसे पोषित किया गया है कि उसका बोध मनुष्य को बहुत कम मात्र में है। वह जानता है कि वह ‘अभिप्रायों से भरा’ हुआ है फिर भी उसे कोई आभास ही नहीं कि उसका परिणाम दुर्गति और भ्रम होगा । उसके अभिप्राय उसके जीवन में विशेष रूप से कोई बदलाव नहीं लाने वाला है और नाहि वे जीवन में कोई महत्व लाते हैं, पर फिर भी, वह अभिप्रायों के जाल में फँसा रहता है, एक ऐसा जाल जो हर दूसरे मानव के साथ बँटवारा करता है। और फिर यहॉं जीवन का भेंट है - अध्याय ‘अभिप्राय’ में- उसके विकट परिस्थिति का यथार्थ समझ प्रदान करते हुए ।
अभिप्रायों से प्रेरित होकर, मनुष्य निर्णय करने के लिए, मन की उत्सुकता से हार मान लेता है। वह बडी उत्सुकता से उनकी रक्षा करता है और कम विद्रोही और कम विनम्र लोग पर थोप देता है। निर्णयात्मक निष्कर्श से कुछ भी नहीं बचता- सबको आनन्दित करने के लिए, सौंदर्य का प्रदर्शन करता हुआ खुशबूदार फूल भी ‘यह’,‘वो’,‘क्या यह सच है’,‘क्या या आप निश्चित हैं’,इत्यादि से नहीं बचता । बच्चा या युवक, जिसका जीवम अचानक मुड गया हो, ‘अपना रास्ता खो बैठता है’ या ‘अपनी योग्यता का उपयोग कर नहीं पायेगा’ इत्यादि कहा जाता है। ऐसे सौ निर्णय का प्रकट करते हुए मन को देखने का यही मतलब है कि कोई संकेत बिना, निर्णय तो बहते जाते रहते हैं! जीवन जो हर क्षण प्रदान करता है उसका आनन्द लेने में कितनी आज़ादी है जब निर्णय करने की इस अंतहीन प्रक्रिया का कुछ बोध घटित होता है, जो मनुष्य को कहीं ले जाता नहीं, बल्कि केवल निर्णायक को एक सदा कसकने फाँसी का फंदा में सीमित कर देता है- जो वहाँ नहीं है! इस समझ को अध्याय ‘निर्णय’ में -जैसा कहा जाता है एक चाँदी की थाली में अर्पित किया गया है।
निर्णय करते ही मनुष्य को उसकी स्पष्टीकरण देना पडता है। उसे अब तक समझना बाकी है कि कोई भी स्पष्टीकरण जीवन में निश्चितता घटित नहीं करता। जीवन पर भरोसा करने के सिवा कोई और कोई चुनाव नहीं- यह बोध अध्याय ‘स्पष्टीकरण’ पढ़ने के बाद प्रकट होता है। चूँकि मन का अस्तित्व वर्तमान में नहीं, वह जीवन को समझने और भरोसे रखने में असमर्थ है और इसलिए उसका सहारा लेता है जिसका वह निर्भर कर सकता है- यानि उनका स्पष्टीकरण कि चीज़े क्यों घटित होते हैं, घटित हुए हैं और घटित होंगे। इस अध्याय में जो बोध प्रदान किया गया है, उसे समझने पर, धीरे-धीरे और स्पष्ट होता है ताकि उत्सुकता से प्रतीक्षा करना या घटना आदि का स्मरण करना, अब मनुष्य को परेशान नहीं करता। एक साक्षी बनकर मन को देखने को सीखना और उसका स्वभाव को समझना ही वो रहस्य है- हालांकि यह आसान नहीं है।
स्पष्टीकरण, संतोष को नहीं, बल्कि केवल वाद-विवाद को घसीट ले आते हैं : एक खेल के भीतर और एक खेल- जीवन और उसके वाद-विवाद ऐसे हैं। जब अहं अपने आप को दावा करता है और जीवन के सारे समझ को एक तरफ़ उडा देता है, तब वह जैसे देखता है वैसे जीवन का अपना विवादस्पद दृष्टि घोषित करता है, और उसकी रक्षा भी करता है यानि मृत्यु को पसंद करने की हद तक, जिसके बारे में अपने विवादस्पद दृष्टि पहले से घोषित कर दिया है! अध्याय ‘विवाद’ कर्तृत्व और अकर्तृत्व, दोनों को हटाते हुए उनकी भ्रामिक विचार का समझ प्रदान करता है और फलस्वरूप द्वैतता को भी हटा देता है। पढ़नेवाला जीवन की प्रज्ञा के प्रति अगाध कृतज्ञता का अनुभव करेगा जो इस किताब के लेखक द्वारा भेंट के रूप में प्रदान किया गया है।
कैसी एक अद्भुत फंदा भ्रामिक व्यक्ति के लिए जीवन बनाया है ताकि वह माया में शाश्वत संतोष ढूँढ न पाये, यदि वह उसे यथार्थ माना तो। वह कैसा कर सकता है जब वह चिंता से मज़बूर है। परमानन्द के लिए जो प्रवृत्ति गहराई से उसके स्वभाव में है, उसे वहॉं देखने के लिए मज़बूर करता है जहॉं वह नहीं है और जहॉं है उसकी उपेक्षा या अनदेखा करना। फिर भी जीवन एक क्षण के लिए भी उसे बेसहारा होने छोड नहीं देता क्यों कि सदा वो क्षण है जहाँ वह स्वयं है यानि जहाँ वह जीवित है कोई विचार या चिंता बिना। मनुष्य का ऐसा एक अगाध विश्लेषण कभी हुआ नहीं जैसे अध्याय ‘चिंता’ में है। वह ज़रूर एक असाधारण तथ्य है। जो ज्ञान मनुष्य और उसके मन के स्वभाव के समझ को प्रकट करता है, वह और भी असाधारण है। इस जाँच-पडताल का विवरण इतना अगाध है कि इसे सहिष्णुतापूर्वक से और बडी सतर्क रूप से पढ़ना आवश्यक है।
यह शिकायत करना कि जीवन में कुछ गलत है या जीवन ही गलत है, क्या कभी मनुष्य को संतुष्ट कर पायेगा? क्या संतोष की ऐसी बिन्दु है जो वह पहुँच पायेगा? क्या वह निश्चित है कि जीवन में ऐसा एक बिन्दु का अस्तित्व है? यदि होता और वह उसकी अस्तित्व से निश्चित है, फिर शिकायत करने में कुछ समझदारी है ताकि इस बिन्दु पर एक न एक दिन पहुँने पर वह संतुष्ट हो सकेगा। अध्याय ‘कुछ भी गलत नहीं’ इस विषय को निपटता है और जीवन के प्रति हर एक आदमी की प्रवृधि का यह एक बडी क्षेयस्कर विश्लेषण है, क्यों कि जो हर दिन हमें घटित होता है उसे न स्वीकार करने में हम सब काफ़ी मात्रा में ऊर्जा समर्पित करते हैं । सतर्क और सहनशीलपूर्वक से इस अध्याय को पढ़ना हमें जीवन के हर क्षण के प्रति जीवित रहने को प्रेरित करता है, जिस तरह एक छोटा बच्चा मैदान में खेलता है। मन के भावुक गति पर ऐसा ध्यान दिया गया है कि हमें स्थिरित रहना मुश्किल पड जाता है। इस अध्याय का ज्ञान , माया का जाल को स्पष्ट करता है जिसमें हम फूहड ढंग से मूर्खतापूर्वक भूल कर बैठते हैं या करने जैसा लगता है।
अंतिम अध्याय ‘समझ’ इस खंड का एक असाधारण उत्कर्ष है। इस किताब की प्रगति ऐसी है कि पढ़नेवाले को, समझ का आविर्भूत होने लगता है। वह पढ़नेवाले को कृतज्ञता के साथ समझाने में समर्थ करता है कि जीवन वापस नहीं जाता और इसलिए, साधारण सांसारिक कार्य से लेकर बहुत अधिक परिष्कृत और प्रौद्यौगिक पूर्वक रूप से अद्भुत कार्य तक, पूरे समय के दौरान, क्रमिक विकास की प्रक्रिया(हालांकि वह भ्रामिक है) मनुष्य का नहीं बल्कि जीवन की प्रज्ञा की शक्ति है। मनुष्य केवल भगवान के कार्य को सराहने और विस्मित होने के लिए है और नाकि उसका दावा करने के लिए ।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जीवन मनुष्य को सुदूर अतीत की छान-बान करने के लिए अपने अधिक जीवन समर्पित करने में मज़बूर किया है और पूर्वैतिहासिक शिल्पकृतियों को, हड्डियों इत्यादि को खोज निकालने और पहचानने में और विकास-सम्बंधी प्रक्रिया में खोये हुए संबन्ध को खोजने में और बहस करने में उल्लास होने का मज़बूर किया है। इस प्रकार वह जीवन की प्रज्ञा जो इस अभिव्यक्त किया गया संसार में सम्बद्ध है,उसे शायद समझ पायेगा, पर फिर भी और भाग्यवान वह आदमी है जो भक्ति सहित संसार की भ्रामिक स्वभाव को जिसमें वह जीता है उसे खोज निकालने के लिए अपने मन की जाँच-पडताल करता है ताकि उसका यथार्थ , नैसर्गिक स्वभाव जो खुद जीवन है प्रकट हो सके !
कैवल्य-गीता का तीसरा खंड ऐसा एक खोज के लिए एक उचित साधन है !
पीटर जूलीयन् केप्पर
एम. ए (केनटॉब) यू. के
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